स्वामी रामकृष्ण के पास एक बार एक व्यक्ति आया। स्वामी जी उस समय प्रवचन दे रहे थे। वह सभा में पीछे बैठा सुनता रहा। प्रवचन के बाद प्रश्न का समय हुआ और कई लोगों ने अपने प्रश्न पूछे जिनका स्वामी जी ने उत्तर दिया। उस पीछे बैठे व्यक्ति को भी कुछ प्रश्न पूछने थे किंतु उसने सभी के सामने पूछना सही न समझा या उसको सबके सामने पूछने मे हिचक हो रही थी। सभा की समाप्ति हुई और स्वामी जी अपने कार्यों मे लग गए। वह आदमी निराश होकर लौट आया।
दूसरे दिन फिर से व्यक्ति गया किंतु उस दिन भी वह प्रश्न नहीं कर पाया और शाम को लौट आया और यही क्रम तीसरे दिन भी चला। कारण यह था कि स्वामी जी इतना अधिक व्यस्त रहते थे कि उनसे बात करना कठिन था और जब वे लोगों से बात करने का समय निकालते थे तब लोग उनको घेर लेते थे और हमारे इस व्यक्ति को तो अकेले में बात करनी थी। वह तीन दिन ऐसे ही घूमता रहा।
चौथे दिन जब वह आश्रम पहुंचा तो उसने स्वयं में संकल्प कर रखा था कि आज तो वह किसी तरह बात अवश्य ही करेगा। मौका देखकर वह स्वामी जी के रास्ते में आ गया और पैर पकड़कर बैठ गया। स्वामी जी किसी कार्यवश जा रहे थे किंतु रास्ते में जब उसने पैर पकड़ लिया तो उन्होनें रुकने का सोचा। वैसे भी वे पिछले कई दिनों से इस परेशान व्यक्ति के चेहरे को एक दो बार प्रवचन में देख लेते थे किंतु उन्होनें सोच रखा था कि इस व्यक्ति को ही साहस करने का अवसर दिया जाए और फिर एक दिन तो ये पूछ ही लेगा। आज जब उसने पैर पकड़कर अपनी विनती की तो स्वामी जी एक कुटिया में अकेले आ गए और उससे अपनी समस्या कहने को कहा।
उस व्यक्ति ने कहा “स्वामी जी! मैंने अपने जीवन मे बहुत धन कमाया है, खूब व्यापार किया किंतु धर्म न कमा सका। आज मुझे लगता है कि मुझे धर्म करना चाहिए इसीलिए मै चाहता हूं कि आप मेहनत से कमाया गया ये धन किसी कार्य में लगा दीजिए ताकि इसका उपयोग भी हो जाए और मैं धर्म का कार्य भी कर सकूं।”
स्वामी जी ने गौर से उसके चेहरे को देखा और कुछ सोचा। फिर मुस्कुराते हुए उन्होनें कहा, “इस आश्रम से कुछ दूरी पर नदी है। तुम ऐसा करो कि जितना धन तुम धर्म पर खर्च करना चाहते हो वह उसमें फेंक दो।”
स्वामी जी इतना कहकर चले गए लेकिन वह परेशान आदमी और अधिक परेशान हो गया। उसे समझ नहीं आया कि धन को नदी में फेंकने से क्या धर्म होगा। अरे कहते कि गरीब को दान दो अथवा मंदिर बनवा दो या फिर किसी की बेटी की शादी करवा दो इस धन से, तब तो लगता कि धर्म हुआ। पर यहां तो फेंकने को कह दिया।
फिलहाल स्वामी जी ने कहा है तो कुछ मतलब तो होगा ही, ऐसा सोचकर वह गया और एक पोटली मे सोने चांदी आदि के सिक्के लेकर वह घाट पर पहुंचा। उसने पोटली में हाथ डाला और मुट्ठी सिक्कों से भरकर कसी। लेकिन जैसे ही उसने उन्हें बाहर निकाला, उसे सिक्के देखकर बहुत बुरा लगा। इतनी मेहनत से की गई कमाई को वह कैसे फेंकता। बहुत कश्मकश के बाद उसने एक सिक्का पानी में फेंका। पानी ने बिना किसी व्यवधान के उसको स्वयं मे डुबा लिया। दूसरे सिक्के का फेंकना उससे न हुआ और वह दूसरे दिन फिर से आश्रम में खड़ा हो गया और उसने जल्द ही स्वामी जी से सारी बातें कह दी।
स्वामी जी ने उसकी बताई गयी पूरी बात को सुना और फिर कहा, “तुमने कहा कि तुम नदी मे सिक्के इसलिए नहीं फेंक सके क्योंकि वे सिक्के बहुमूल्य हैं। वे तुमने अथक परिश्रम से कमाए हैं। यह बात ठीक है किंतु अब ये बताओ कि यदि तुमने इतना परिश्रम किया तो वे व्यर्थ कैसे हो गए कि तुम उनको अधर्म समझने लगे? और यदि तुमको त्याग करने में धर्म दिख रहा तो तुम अब सिक्कों से मोह क्यों कर रहे?”
व्यक्ति के पास कोई जवाब नहीं था।
स्वामी जी अपनी बात जारी रखी “तुम जो धर्म करना चाहते हो वह धर्म नहीं है बल्कि तुम्हारा यश कमाने का लोभ है और यदि तुम धर्म करना ही चाहते हो तो उस धन की चिंता न करो। यदि अब उसका तुम्हारे जीवन में कोई मोल नहीं रहेगा तभी तुम उससे दूर रह पाओगे किंतु यदि तुम उसके साथ में अथवा उसके ध्यान में समय बिताओगे तो तुमको मानसिक शांति नहीं मिलेगी।”
व्यक्ति को स्वामी जी की बात समझ मे आ गई और वह पुनः आकर अपना काम करने लगा।
स्वामी जी ने सरलता से स्पष्ट कर दिया कि धर्म कर्म के करने में है न कि कर्म से भाग कर अकर्म में। यदि समाज से जुड़कर उसका भला किया जाए और उसमें अपने यश को खोजने के स्थान पर केवल समाज की चिंता की जाए तब भी हमारा भला होगा क्योंकि हम भी तो उसी समाज का हिस्सा हैं। कर्म सदैव ही अकर्म से बेहतर रहा है। कर्म ही धर्म का प्रथम पाठ है।