Bonfire In Villages
साल का सबसे सुंदर महीना अगर चुना जाए तो वो शायद दिसम्बर होगा। और अगर इसका रंग बताना हो तो? शायद खेतों में खिलते सरसों के फूलों सा! या फिर बगीचे के गुलाब जैसा! यही तो ख़ासियत है इस महीने की… जितने रंग दिए जाएँ, उतने कम। और अगर बात खुशबुओं की करें तो सूची और भी लम्बी हो जायेगी। मेथी के लड्डू, तिल की पापड़ी से लेकर अलाव की लकड़ियों की महक तक सब कमाल!
हमारे गाँवों में अलाव तापने (Bonfire In Villages) की तो जैसे ख़ास परम्परा ही रही है। रात को सब काम निपटाने के बाद किसी गली के नुक्कड़ पर या किसी घर के सामने कई लोगों का साथ बैठकर अलाव तापना गाँव के लोगों के लिए बड़ा ख़ास होता था। पर बदलते समय के साथ ये भी बदल गया है। क्यूँ और कैसे? ये जानने के लिए पिछली सर्दियों में गाँव कनेक्शन ने कानपुर देहात के कुछ लोगों से बात की थी।
“पहले मोबाइल टीवी नहीं था, तब इन अलावों के आसपास खूब भीड़ रहती थी, अब तो सब रजाई में बैठकर फोन चलाते रहते हैं, किसको फुर्सत है कहानी सुनने की।” अलाव ताप रहे दिनेश कटियार ने बताया था।
आज से पांच छह साल पहले जबतक मोबाईल जैसे उपकरणों की भरमार नहीं थी तब ग्रामीण क्षेत्रों में सर्दी के मौसम में ये अलाव (Bonfire In Villages) ही मनोरंजन का माध्यम होते थे। इन अलाव पर ठंड से बचने के साथ-साथ कभी किस्से-कहानियां तो कभी लोक संगीत और आल्हा होते। लड़ाई-झगड़े भी यहीं निपटते और एक दूसरे की मदद भी होती। ग्रामीण फसलों की चर्चा के साथ भुने आलू और शकरकंद का लुत्फ भी उठाते।
“छह सात साल से अलाव पर किस्से कहने का सिलसिला न के बराबर बचा है। अलाव सिर्फ़ ठंड से नहीं बचाता था, ये मनोरंजन का भी एक माध्यम था। यहां पूरे मोहल्ले की मिल जाती थी। अब तो ये नजारा कभी-कभार ही देखने को मिलता है।” दिनेश कटियार ने आगे कहा था। ये कानपुर देहात के निंदापुर गाँव के रहने वाले हैं। घने कोहरे के बीच सुबह सात बजे अलाव के लिए कुछ लकड़ियां जलाते अस्सी वर्षीय सुदामा प्रसाद अकेला की उंगलियां कांप रही थीं।
Bonfire In Villages
“इस ठंड में यह आग ही बुढ़ापे का सहारा है, अलाव पहले भी जलते थे और अब भी, फ़र्क केवल इतना बचा है कि अब गाँव के नुक्कड़ पर नहीं, अपने दरवाजे पर आग जलाकर ताप लेते हैं।” सुदामा प्रसाद ये कहते हुए अपनी हथेलियों को आग सेंकने में मग्न थे। ये नज़ारा कानपुर देहात जिला मुख्यालय से लगभग 45 किलोमीटर दूर राजपुर ब्लॉक के नैनपुर गाँव का था।
सुदामा प्रसाद की तरह कई दरवाज़ों पर उस वक़्त आग जल रही थी। हर आग के ढेर पर घर के दो चार लोग बैठे आग से अपनी सर्दी भगा रहे थे। कुछ देर बाद इस अलाव पर आसपास के कुछ और लोग भी जमा हो गये। रिपोर्टर के ये पूछने पर कि क्या पहले भी ऐसे ही अलाव जलते थे? इस पर सुदामा प्रसाद बोले, “अब गाँव में पहले जैसी बात कहाँ बची है? पहले तो रात-रातभर जगकर लोग किस्से-कहानियां सुनते थे। मोहल्ले में एक जगह शाम को सूरज ढलते ही आग जलने लगती थी, धीरे-धीरे लोगों जमावड़ा होने लगता था।”
भारत के गाँवों में सीमित संसाधनों के बीच जीवन गुजार रहे लोगों के लिए ठंड से बचने का अलाव (Bonfire In Villages) ही एक ज़रिया होता है। पर पिछले कुछ सालों में बढ़ते आधुनिकीकरण की वजह से नुक्कड़ पर जलने वाले अलाव अब दरवाजों तक सीमित हो गये हैं। गाँवों के लोगों ने बताया कि पहले अगर किसी के घर में फ़सल आने से पहले अनाज ख़त्म हो गया तो उसे खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती थी, अलाव पर ही बातचीत में कोई न कोई उनकी मदद के लिए तैयार हो जाता था।
‘ये भारत के अन्नदाता ये कैसी बेहाली रे, सारा जग का पेट भरे तू तेरी झोली खाली रे’… अलाव पर बैठे सुदामा प्रसाद अकेला ने खेती-किसानी से जुड़े ऐसे कई लोकगीत सुनाए जो उन्होंने ख़ुद लिखे हैं।
अपने देश में अलाव की धार्मिक मान्यताएं भी हैं। जैसे ओडिशा में अलाव जलाकर अग्नि पूर्णिमा त्योहार मनाया जाता है जो माघ पूर्णिमा के दौरान फरवरी महीने के बीच में पड़ती है। मकर संक्रान्ति से एक दिन पहले सिख समुदाय के लोग लोहड़ी मनाते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे प्रदेश में यह पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, इसमें भी अलाव ही जलाये जाते हैं। लोग सूखी लकड़ियों को इकट्ठा करके पिरामिड तैयार करते हैं फिर इसकी पूजा होती है। इस अलाव में तिल के दाने के साथ मिठाई, गन्ना, चावल और फल भी डाले जाते हैं। इसके बाद लोग ढोल की थाप पर भांगड़ा और गिद्दा करते हैं।
कुछ दूरी पर एक दूसरे अलाव पर आग ताप रहे कहानीकार राजेश कुमार जिनकी उम्र पचपन वर्ष थी, उन्होंने बताया था – “आज से पांच साल पहले तक जब मैं कहानियां सुनाने बैठता तो आस-पड़ोस के बच्चे मुझे घेर कर बैठ जाते थे और घंटों कहानियां सुनते थे। जबसे ये मोबाइल आया है तबसे बच्चे पूरे समय मोबाइल में किट-पिट करते रहते हैं। बच्चों को गेम से फुर्सत नहीं मिलती और बड़ों को व्हाट्सएप और यूट्यूब चलाने से फुर्सत नहीं। अब कहानी सुनने का किसी के पास वक़्त ही नहीं बचा है।”
राजेश कुमार की तरह कहानीकार और सुदामा प्रसाद अकेला की तरह लोकगीत और आल्हा गाने वाले पहले हर गाँव में तीन चार लोग होते थे। सर्दियों में ऐसे लोगों की बड़ी पूछ रहती थी। हर कोई इन लोगों को अपने मोहल्ले में जल रहे अलाव पर लेकर जाता था। गाँव में ऐसे लोग हैं तो अभी भी लेकिन अब सुनने वालों की संख्या कम हो गयी है जिसकी मुख्य वजह ग्रामीणों को मोबाईल और टीवी लगती है।
“इन उपकरणों से जितनी हमारी ज़िन्दगी आसान हुई है उतना ही भाई-चारा कम हुआ है। अब एक साथ लोग अलाव पर देर तक बैठते ही नहीं हैं। पहले कहानी के शौकीन लोग अपने दरवाजे पर लकड़ी का इंतजाम करके अलाव लगवाते थे।” अलाव के ढेर में लकड़ी रखते हुए राजेश ने बताया, “इन कहानियों में आल्हा, राजा-रानियों की कहानियां, परियों की कहानियां, राजा विक्रमादित्य, पंचतंत्र, चार पाई के चार पाँव जैसी तमाम कहानियां रहती थीं।”
उन्होंने ये भी बताया कि एक अलाव पर तापने वाले हर व्यक्ति की ये जिम्मेदारी रहती वो हर दिन लकड़ियों का इंतजाम करने में सहयोग करे। सभी की मदद से लकड़ी का इंतजाम होता और वो कभी ख़त्म नहीं होती थी। एक परम्परा के पीछे और भी कितने सारे सुंदर भाव जुड़े थे न!
गाँव के लोगों ने बताया कि सर्दी के मौसम में खेतों में जो गर्म चीज़ें पैदा होती थीं ग्रामीण उसका सेवन ज्यादा करते थे जिससे सर्दी कम लगे। ग्रामीण सर्दी के मौसम में रात में सोने के लिए धान से निकलने वाले पुआल को बिछा लेते थे उसके ऊपर बिछौना बिछा लेते जिससे सर्दी कम लगे। घर के सभी लोग इस बिछौने पर सोते थे, कुछ जगह अभी भी यही इंतजाम है। ग्रामीण अभी भी जानवरों को जूट के बोरे पहनाकर उनकी सर्दी बचाते हैं। कितनी अलग, कितनी प्यारी होती है न गाँव की सर्दी!
कानपुर नगर के चौबेपुर ब्लॉक के निगोहा गाँव में रहने वाले अलाव ताप रहे नौ साल के रूद्र ने बिना अटके शिव स्तुति सुनाई थी। रूद्र ने बताया – “जब मैं चार साल का था तबसे मुझे हनुमान चालीसा और शिव स्तुति याद है। हमारे बाबा रात में आग जलाकर हमें बिठा लेते थे, हम वहां से उठे न इसलिए यही सब सुनाकर मन बहलाते रहते थे।”
ऐसे ही और भी कितने ग्रामीणों ने अलाव से जुड़ी अपनी अपनी यादें साझा कीं। कितनी प्यारी हैं ये यादें। हमें हमेशा के लिए इन्हें सहेजना चाहिए। अलाव तो एक बहाना है… अगर तलाशने लगें तो ऐसे और न जाने कितने बहाने मिल जायेंगे सबके साथ बैठने के… जैसे शाम की चाय, जैसे इतवार की दोपहर का कैरम, और अलाव न सही रजाई में बैठकर ही सुने सुनाये जाने वाले किस्से कहानियां! कहानियां कहने और सुनने से बेहतर कुछ नहीं जो हम आने वाले समय को धरोहर के रूप में सौंप सकते हैं।
मूल स्टोरी – नीतू सिंह (गाँव कनेक्शन)
सुदामा प्रसाद अकेला जी के लोकगीत यहाँ सुनें –
https://www.yourmic.in/watch/bundeli-lokgeet-folk-studio-mic-with-neelesh-misra