“ऐ ज़ौक़ तकल्लुफ़ है शरीफ़ों की निशानी
बेहूदा हैं वो लोग जो तकल्लुफ़ नहीं करते।”
बात दरअसल आम की है। जी हाँ! वही आम जिसे तकल्लुफ़ के साथ हरगिज़ नहीं खाया जा सकता। शराफ़त का दामन थाम कर नफ़ासत भरे अंदाज़ में अगर आम खाया तो क्या खाया? मुहब्बतों के रस से लबरेज़ ये शाही फल हम हक़ीर फ़क़ीर बन्दों के लिए बेहद ख़ास दर्जा रखता है। अंधड़ और बारिश से भरा जून जुलाई का मौसम हम आम के दीवानों के लिए माहे वैलेंटाइन से कम नहीं है।
अब आप सोचें इसी पाक महीने में दशहरी के इश्क़ में गले गले डूबी किसी लड़की की शादी हो जाये… अल्लाह तौबा!
लेकिन होता वही है जो हम बन्दों को सख्त नागवार गुज़रता है। हम रात दिन दुआएं पढ़ें, सजदे में पेशानी घिस डालें लेकिन माँ बाप के मासूम दिमाग़ में जून का महीना इब्लीस की तरह आकर दर्ज हो जाता है।
इस महीने में जिस लड़की की शादी हुई, वो ससुराल पहुंच कर ज़ेवर कपड़ों के चकाचौंध में गुम नहीं हो पाती। वो बदक़िस्मत तो खाने की मेज़ पे करीने से सजी आम की फांको को देख कर सोचती है –
“या अल्लाह! ये पतली पतली फांकें कैसे खाऊं कि मुंह का ज़ाविया न बिगड़े। होंठ, दांत, गाल सब के सब अपनी जगह क़ायम रहें और आमों की लज़्ज़त भी मिल जाये… ये तो किसी तौर मुमकिन नहीं।”
लडक़ी बेचारी दिल मसोस कर खाने के बाद बड़ी नफ़ासत से एक फांक उठाती है; ननद, देवर, सास, शौहर और बाक़ी के अफ़राद प्यार से नई दुल्हन को देखते हैं। लड़की की झिझक दूर करने को कहते हैं –
“शर्माओ नहीं, बिला तकल्लुफ़ खाओ। आम मौसमी फल है बस चंद रोज़ का।”
दुल्हन बेचारी ऊपर से मुस्कुरा कर हाँ में सर हिला देती है, भीतर से उसका दिल रो पड़ता है। हाय! क्या सारी ज़िन्दगी अब आम न खा पाऊंगी? कमरे में छुपा कर खाऊं तो कैसा रहे? लेकिन नया नया क़रीबी बना शौहर टाइप लड़का, देखेगा तो क्या कहेगा? कैसे जंगलियों की तरह आम खाती है? न न इम्प्रेशन गलत नहीं पड़ने देना है। उफ़्फ़! क्या करूँ?
उसे मायके की याद आती है। नए नए ससुराल में काम काज की ज़िम्मेदारी नहीं, तो याद करने के लिए काफ़ी वक़्त मिल जाता है। वैसे भी शुरुआत में नई बहुओं के नख़रे खूब उठाये जाते हैं, जैसे नया नया धोबी कथरी में भी साबुन लगाता है, ठीक वैसे…
हां तो लड़की याद करती है कि मायके में आम खाने के क्या ख़ूब मज़े थे। बगीचे से देसी आमों की खेप आती, दादा कहते इन आमों को कितना भी खाओ नुकसान नहीं करता।
बाल्टियों में नल चला चला कर पानी भरे जाते, फिर उसमें आम डुबाये जाते।
बड़े से आंगन में पानी का छिड़काव किया जाता, धूल गर्द सब फ़रमाबरदारी दिखाते हुए ज़मीन से लग जाते। सोंधी ख़ुशबुओं के बीच घर के बड़े लोग चारपाइयों पे बैठ जाते| बच्चों का हुजूम दादा दादी से लग कर आम की ढेरियों के पास इकठ्ठा हो जाता। नन्हे मुन्ने हंसी कहकहों के बीच किसी न किसी के बचपन की बातें सुनाई जातीं। ओसारे में लकड़ी के सुतून से टेक लगाए मचिया रखे फूफियां बैठी होतीं। सबके पास पानी मे भिगोए आम रखे होते, जिन्हें तबियत से चूस चूस कर गुठलियों का अंबार लगाया जाता था। क्या ही ख़ुशनुमा नज़ारा होता था!
शराफ़त का दामन थाम कर नफ़ासत भरे अंदाज़ में अगर आम खाया तो क्या खाया?
डाल पे पके आमों का भी अलग ख़ब्त होता था, दसहरी गौरजीत आमों के बगीचे मह मह महकते। गौरजीत खाकर हाथ धुलने के बावजूद हथेलियों से ख़ास किस्म की ख़ुशबू आती।
आम काट कर खाने में कभी लुत्फ़ न आया, लगता जैसे दिल न भरेगा दो चार फांक खाने से।
कैसे आमों के हिस्से लगते थे! पाल लगे आम से जब अख़बार हटाये जाते, पीले आम सोने जैसे चमक उठते। दादी अपनी मख़सूस मचिये पर टेक लगाये सारी बहुओं को उनके हिस्से का आम भिजवातीं। मानो वो सच में कोई कीमती ज़ेवर हों, जिसकी अहमियत सबको मालूम है।
हाय वो वक़्त बेवक्त आम खाने का सिलसिला! बड़े अब्बा शुगर पेशेंट थे, वो हंस कर कहते – “अजी जनाब, आम खाने का कोई तयशुदा वक़्त होता है क्या? जब नजर पड़े, उठाओ और खा लो!”
ख़ैर, वो एक साल जो लड़की ने तकल्लुफ में गुज़ारे थे, आमों की जुदाई का वो महीना गाहे बगाहे अब भी याद आ जाता है। मगर सूरत हाल बदल चुकी है, अब वो शरारती लहज़े में अपने बच्चों से कहती है – “मुंह फैला फैला कर ज़बान फिराते हुए, अच्छी बुरी शक्लें बना कर जब तक एक बैठकी में चार छः आम न खाएं जाएं तब तक वो कैसा आमों का शौक़ीन भला?”
“ऐ ज़ौक़ तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर,
आराम से हैं वो जो तकल्लुफ़ नहीं करते।”
8 comments
जैसा तआरुफ़ दिया गया है सबाहत साहिबा का, पूरा लेख सरासर वैसा ही खास है। आम खाने की दास्तान, शऊर, लुत्फ, सब बड़े ही खास हैं, महज़ आम नहीं।
उर्दू अल्फ़ाज़ के लुत्फ़ और शाही अंदाज़ मे हुई इस दास्तानगोई को तहे दिल से सलाम।
हाय ! मेरे आम 😋😋😋
तेरे लफ़्ज़ों की क्या तारीफ़ करें हर लफ़्ज़ से मोहब्बत टपकती है।अपना बचपन याद आ गया ।
शुक्रिया
सही है, शब्दों में ही आम का रसीलापन चेहरे पर फैल गया 😊
नाज़ुक मिज़ाज उर्दू ,शरारत ओढ़ कर आयी है …..
आम को खास बना दिया। मिठास भरा लेखन।
आम को खास बना दिया। मिठास भरा लेखन।